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Wednesday, August 13, 2008

intezaar


समंदर किनारे एक लड़की
सांझ की किरणों में
हर रोज़ की तरह शब् में ढलने का
इंतज़ार कर रही थी

रेत की चादर में
डूबते सूरज को अलविदा कर
वो चाँद की दस्तक का
इंतज़ार कर रही थी

उस तन्हाई में बैठ कर
शायद वो किसी के
आने का
इंतज़ार कर रही थी

सलोनी काया
अंधेरे में घिरती हुई
बूंदों की रौशनी से अपना
श्रृंगार कर रही थी

उसको देख के
मैं वहीं थम गया
जहाँ से मेरी धड़कन
रुकने का इज़हार कर रही थी

किसी सोच में
डूबी थी वो शायद
और मेरी रूह उसी सोच का
दीदार कर रही थी

अचानक उसने मुझे देखा
तोह ऐसा लगा जैसे
साँसे चलने से
इनकार कर रहीं थीं

मैं तोह रो ही
पड़ा था
और उसकी आँखें भी बहने का
इंतज़ार कर रहीं थीं


कुछ कदम भी
मीलों से लग रहे थे
उसकी नज़र मुझे चलने से
लाचार कर रही थी

जब वो मेरी ओअर
दौड़ कर आई तोह ऐसा लगा
न जाने कब से मेरी बाहें
उसे थामने का इंतज़ार कर रहीं थीं

खो गई वो लहरें
वोह चाँद,वो सूरज
मेरी दुनिया बस वो ही
साकार कर रही थी

और खो गया वो समंदर
जिसके किनारे
वो लड़की मेरा कब से
इंतज़ार कर रही थी

2 comments:

Pallavi Sharma said...

Serendipity, huh? ;-)
Nice! Quite similar to my train of thought, though I was the third person narrating.
http://expresspallu.blogspot.com/2006/05/samandar-kinaare-woh-ladki.html

Pallavi Sharma said...

Oh, aside from the fact that mine is more like a ghost story.