
समंदर किनारे एक लड़की
सांझ की किरणों में
हर रोज़ की तरह शब् में ढलने का
इंतज़ार कर रही थी
रेत की चादर में
डूबते सूरज को अलविदा कर
वो चाँद की दस्तक का
इंतज़ार कर रही थी
उस तन्हाई में बैठ कर
शायद वो किसी के
आने का
इंतज़ार कर रही थी
सलोनी काया
अंधेरे में घिरती हुई
बूंदों की रौशनी से अपना
श्रृंगार कर रही थी
उसको देख के
मैं वहीं थम गया
जहाँ से मेरी धड़कन
रुकने का इज़हार कर रही थी
किसी सोच में
डूबी थी वो शायद
और मेरी रूह उसी सोच का
दीदार कर रही थी
अचानक उसने मुझे देखा
तोह ऐसा लगा जैसे
साँसे चलने से
इनकार कर रहीं थीं
मैं तोह रो ही
पड़ा था
और उसकी आँखें भी बहने का
इंतज़ार कर रहीं थीं
कुछ कदम भी
मीलों से लग रहे थे
उसकी नज़र मुझे चलने से
लाचार कर रही थी
जब वो मेरी ओअर
दौड़ कर आई तोह ऐसा लगा
न जाने कब से मेरी बाहें
उसे थामने का इंतज़ार कर रहीं थीं
खो गई वो लहरें
वोह चाँद,वो सूरज
मेरी दुनिया बस वो ही
साकार कर रही थी
और खो गया वो समंदर
जिसके किनारे
वो लड़की मेरा कब से
इंतज़ार कर रही थी
2 comments:
Serendipity, huh? ;-)
Nice! Quite similar to my train of thought, though I was the third person narrating.
http://expresspallu.blogspot.com/2006/05/samandar-kinaare-woh-ladki.html
Oh, aside from the fact that mine is more like a ghost story.
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